आलोचना - पीड़ा या सीख? | CRITICISM - Suffering or Learning?

हम सभी प्रातः उठने से लेकर रात्रि सोने तक रोजमर्रा के छोटे बड़े कितने ही काम करते हैं, चाहे वह अपनी साफ सफाई हो, घर के काम, बाजार के हों, व्यावसायिक हों या किसी भी प्रकार के ही क्यों न हों, और वह काम हमने कितने ही मन से या मेहनत से क्यों न किये हों लेकिन हमें कोई न कोई टोक देता है। नसीहतें दी जाने लगती हैं और गुण सिखाये जाने लगते हैं। छोटी छोटी बातों को लेकर हमें खरी खोटी सुनाई जाती है, हमें एहसास होने लगता है जैसे हम नासमझ हों, या हमसे दुश्मनो की भांति व्यवहार हो रहा है। हालाँकि सत्य ये है कि यह सब मात्र आलोचना (CRITICISM) का ही प्रारूप है। हमारे द्वारा किये गए कार्य, हमें या हमारे कार्यों को मापने वालों के हृदय में आलोचना अथवा प्रशंसा के भावों को जन्म देती हैं, तो अगर हमारे कार्य या व्यवहार में कुशलता है तो प्रशंसा के भाव जन्म लेंगे और हमारी तारीफ की जायेगी किंतु यदि हमसे कोई त्रुटि / गलती हुई है तो निःसंदेह आलोचना के भाव जन्म लेंगे एवं हमें बुरा भला कहा जायेगा।

आइये फिर से समझते हैं - आलोचना हमारी गलतियों से ही उपजा ऐसा भाव है जिसको यदि नकारात्मक तौर पर ले लिया जाए तो हमारी हार निश्चित है, हमें ऐसी पीड़ा का अनुभव होगा जो शायद हमें निराशाओं के अन्धकार में धकेल दे किन्तु इसके विपरीत यदि हम आलोचक एवं आलोचना को सकारात्मकता से लें तो हम अपनी प्रत्येक गलती को कामयाबी में, बुरे बर्ताव को उत्तम व्यवहार में या हार को जीत में सुनिश्चित कर सकते हैं।

आईये एक छोटी सी कहानी के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं:

"शिवमणि बचपन से ही पढ़ने लिखने में होशियार था, कितने ही सदगुण उसमे मानो कूट कूट कर भरे गए थे। वह जिस भी कार्य को करता बड़ी लगन, धैर्य, परिक्षण एवं निरिक्षण करने के बाद ही करता ताकि कोई उसके कार्य में किसी प्रकार की गलती या कमी न निकाल दे। किंतु वह यह भूल बैठा था कि समाज में उससे अधिक बुद्धिजीवी भी रहते हैं। खैर वक़्त के साथ शिवमणि भी अनुभवी होता जा रहा था और उसने चलचित्र लेखन की विधा में खुद को स्थापित करने का व्यवसाय चुना। वह जो भी रचना लिखता उसे अपने सगे संबंधियों और दोस्तों को पढ़ने के लिए देता। उसे यकीं था की उसके अनुभव और मेहनत को कोई गलत नहीं आँकेगा। उसने लगभग २०-२५ लोगों को अपनी लेखनी भेजी थी, कुछ ने तो उसकी तारीफों के इतने लंबे लंबे कशीदे गढ़े थे के कहना क्या।


पर ये क्या, ये हुआ तो हुआ कैसे - अचानक १ नहीं, २ नहीं पूरे ५ लोगों ने उसकी रचना को नकार दिया था, उन्होंने उस रचना को दिशाहीन, दशाहीन यहाँ तक की विधा की अपंगता करार दिया, परंतु साथ ही दिये कुछ सुझाओ, कुछ संभावनाएं एवं दिशा भी जो उस रचना को एक अद्वितीय लेखनी में परिवर्तित कर सकती थी। खैर दुःख तो हुआ पर किसे परवाह ऐसे लोगों की। खुद तो कुछ बन नहीं पाए, जीवन में कुछ अच्छा प्राप्त नहीं कर पाए, वे भला क्या समझेंगे लेखन की विधा को, रचनाकार की रचनात्मकता को, खुद से बड़बड़ाते हुए शिवमणि ने उनकी आलोचना को स्वीकार नहीं किया बल्कि भविष्य में उन आलोचकों को फिर कभी अपनी रचना न भेजने का निर्णय ले कर पुनः एक नयी रचना लिखने लगा। वह हमेशा उन्हीं लोगों को अपनी रचना भेजता जो बस उसकी प्रशंसा करते, उसके काम की सराहना करते। कुछ और वक़्त बीता और शिवमणि को अब अगला कदम बढाना था। 

शिवमणि अपनी कुछ अच्छी रचनाएँ लेकर अलग अलग प्रकाशकों के पास पहुँच गया। तमाम प्रकाशकों ने उसकी रचना की, विधा की तारीफ की, किंतु सभी ने उसकी रचनाएँ प्रकाशित करने से मना कर दिया। शिवमणि के पूछने पर प्रकाशकों ने उसे बताया की उसके शब्दों का चयन, उसकी विधा, उसकी रचना सब दुरुस्त है किंतु बिखरी हुई है, मेल नहीं खाती, उसको सुधार करना चाहिए, अच्छी रचना होते हुए भी मजबूत नहीं है, कुछ अभाव हैं जिनसे ध्यान नहीं हटता। शिवमणि अब भी समझ नहीं पा रहा था, उसके मस्तिष्क में उसकी रचनाओं की तारीफ करने वालों की वाह वाही शांत पड़ने लगी थी। एकाएक एक प्रकाशक ने पूछा - महोदय, क्या आप अपनी रचनाएँ लोगों को पढ़ने के लिए देते हैं? शिवमणि ने हाँ में उत्तर दिया, प्रकाशक फिर पूछता है कि क्या जब कोई आपकी रचना की आलोचना करता है या सुझाओ प्रस्तुत करता है तो आप उसको स्वीकारते हैं? अब शिवमणि के पास कोई जवाब नहीं था। वह आलोचकों और आलोचनाओं की प्रमुखता समझ गया था।

वह पुनः अच्छी रचना लेकर आने की बात कहकर वहाँ से चला आया। उसने उन सभी आलोचनाओं, सुझाओं और संभावनाओं को ध्यान से पढ़ा, स्वीकार किया और अपनी रचना में लागू किया। इस बार प्रकाशकों ने उसकी रचना पढ़ कर चुप्पी साध ली, यह वास्तव में एक अद्वितीय लेखनी थी। शिवमणि की रचना छप चुकी थी, चारों ओर से बधाई संदेश और प्रशंसा मिल रही थी। अब शिवमणि जो भी रचना लिखता उसे उन्हीं लोगों को पढ़ने के लिए भेजता जो उसकी उसकी रचना की आलोचना कर सकें, उसमें कमी निकाल सकें और फिर जो भी संभावनाएं अथवा सुझाओ प्राप्त हो उनके अनुरूप रचना में परिवर्तन कर सके। अंततः वह सभी आलोचकों और आलोचनाओं से सीख कर अब सफलता के शिखर पर खड़ा था, उसमें आत्मविश्वास था और वह आत्मसंतुष्टि भी। शिवमणि वास्तव में आलोचकों और आलोचनाओं को स्वीकार कर चुका था।"



आलोचक एवं आलोचना आपको अपनी गलतियों को सुधारने का अवसर देते हैं, वह आपको बताते हैं की आपने कब-कहाँ-क्या गलती की है और साथ ही आपको उसे सुधारने के तरीके एवं योजनाएं अथवा संभावनाएं भी बताते हैं। इसलिए आलोचना से घबराएं नही अपितु उसका वहन करें, उसको स्वीकार कर लें ताकि जो भी त्रुटियाँ, गलतियां आपसे हुई हैं आप उन्हे सुधार कर प्रशंसा के योग्य बनें और आगे बढ़ते जाएँ।

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