संस्कृत श्लोक - चाणक्य नीति २ | SANSKRIT SHLOKA - Chanakya Neeti 2

वास्तव में यह हम सभी जानते हैं और यदि कोई नहीं जानता तो उसे निःसंदेह जान लेना चाहिए कि यदि हम चाहे तो चाणक्य नीति का अनुसरण कर अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। हम कैसी भी परिस्थितियों में, कितनी भी विषमताओं से घिरे होने के बावजूद वह सब प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी हम केवल कल्पना करते हैं। समाज का कोई भी क्षेत्र हो अथवा पारिवारिक या निजी मसला ही क्यों न हो चाणक्य नीति हमें हर जगह, हर तरह से सजग और सचेत करती है। हमारे लिए क्या उचित है, क्या अनुचित, हमें किसका पक्ष लेना है, कितना पक्ष लेना है यहाँ तक की हमें स्वयं के लिए क्या नियम बनाने होंगे वह सब चाणक्य नीति से हम सीख सकते हैं। चाणक्य नीति हमारा मनोबल बढ़ाकर हमें स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करती है।

आज के इस द्वितीय अंश में हम चाणक्य नीति के कुछ और श्लोकों का पठन करेंगे और जानेंगे कि आज चाणक्य नीति हमें क्या सिखाती है।


कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा॥

हिन्दी अनुवाद:
- कौटिल्य महाराज कहते हैं कि यहाँ न तो कोई किसी का मित्र है और न ही यहाँ कोई शत्रु है, केवल कार्यवश ही मनुष्य मित्र बनते हैं अथवा शत्रु।
सरल शब्दों में: तात्पर्य केवल यह है कि यदि आप किसी के लिए उपयोगी हैं, यदि आपकी वजह से किसी के काम बनते हैं तो लोग आपसे मैत्रिय भाव रखेंगे किंतु यदि आप किसी के कुछ काम नहीं आते अथवा आपकी वजह से किसी का काम बिगड़ता है तो आपको शत्रुता की दृष्टि से देखा जाता है। 


माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम्॥

हिन्दी अनुवाद:
- घर और वन में अंतर का बोध कराते हुए चाणक्य कहते हैं कि जिस घर में स्नेह रखने वाली माता न हो और न ही प्रेमपूर्वक वादन करने वाली स्त्री (पत्नी) हो, ऐसे गृह (घर) को त्याग कर मनुष्य को वन में निवास करना चाहिए, क्योंकि तब उसके लिए गृह और वन दोनों ही एक समान होते हैं।
सरल शब्दों में: अर्थात घर तभी सुशोभित होता है जब वहाँ ख्याल रखने वाली माता निवास करती हो, प्रेम और आदर करने वाली पत्नी निवास करती है। यदि किसी घर में वह दोनों ही नहीं हैं तो ऐसे घर का होने का कोई अर्थ नहीं हैं।


आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसण्कटे।
राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः॥

हिन्दी अनुवाद: चाणक्य मित्रता को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि यदि कोई रोग हो जाने पर, विकट परिस्थितियों अथवा असमय शत्रु द्वारा घेर लिए जाने पर, सरकारी मसलो में सहायक के तौर पर एवं मृत्यु हो जाने पर श्मशान भूमि ले जाने तक साथ नहीं छोड़ता, वही मनुष्य वास्तव में सच्चा साथी है।
सरल शब्दों में: यूँ तो कहने भर को कितने ही मित्र अथवा बंधु होते हैं जो अच्छे होते हैं, जिनके साथ वक्त बिताना हमें अतिप्रिय होता है किंतु सच्चे मित्र केवल वही होते हैं जो हर विषम परिस्थिति में हमारे साथ रहते हैं, हमारा मार्गदर्शन करते हैं, हमारा सहारा बने रहते हैं और मृत्यु आ जाने तक कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते।


यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।
विभवे यस्य सन्तुष्टिस्तस्य स्वर्ग इहैव हि॥

हिन्दी अनुवाद:
- सुखद गृहस्थ जीवन का मूल समझाते हुए कौटिल्य कहते हैं कि ऐसा कोई जिसका पुत्र कहने-सुनने में हो, धर्मपत्नी वेदों में बताये गए मार्ग पर चलती हो, और साथ ही जो अपनी संपन्नता से संतुष्ट हो, ऐसे मनुष्यों के लिए धरा ही स्वर्ग समान है।
सरल शब्दों में: तात्पर्य केवल यह है कि जिनकी संतान बड़ों का आदर सम्मान करती है, आज्ञा का पालन करती है, पत्नी वेदों और ग्रंथों का अनुसरण करती है अर्थात पूजा-पाठ, दान-व्रत, संस्कारों आदि का आलिंगन करती है और जिसके लिए जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है में संतुष्टि निहित हो ऐसे मनुष्यों का जीवन अत्यंत सुखद एवं आनंदमयी होता है और उन्हें धरा पर ही स्वर्ग की अनुभूति होती है।


माता शत्रुः पिता वैरी येनवालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा॥

हिन्दी अनुवाद:
- कौटिल्य शिक्षा को मानव विकास के लिए एक अतिमहत्वपूर्ण तथ्य/सत्य मानते हुए कहते हैं कि जो माता-पिता अपनी संतान को शिक्षा से वांछित रखते हैं ऐसे माता-पिता शत्रु के समान होते हैं। अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित समूह में पक्षियों के मध्य काक (कौए) के समान है, जआ कभी प्रतिष्ठा नहीं पाता।
सरल शब्दों में: अर्थात शिक्षा हर मनुष्य के लिए आवश्यक है, शिक्षा की सहायता से ही मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त करते हैं और उनका यश एवं कीर्ति चहुओर सुशोभित होती है।


प्रेम को रेखांकित करता हुआ हमारा प्रथम लेख अवश्य पढ़े कि प्रेम निःस्वार्थ हो या प्रेम में स्वार्थ हो ।


मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्।
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्य चापि नियोजयेत्॥

हिन्दी अनुवाद:
- चाणक्य के अनुसार यदि आपने अपने मन में कोई कार्य सोच कर रखा है तो उसे किसी के भी समक्ष मुँह से बाहर नहीं निकालना चाहिए, और गुप्त रखकर किसी मंत्र की भाँति ही उसकी रक्षा करनी चाहिए। और साथ ही गुप्त तरीके से ही उस कार्य को पूर्ण करना चाहिए।
सरल शब्दों में: आशय यह है कि व्यर्थ का गुणगान करने से अच्छा है, आपकी सफलता आपका यशगान करे। अतः जब तक आप अपने कार्यों को सिद्ध नहीं कर लेते उन्हें चुपचाप बिना किसी से कहे तब तक करते रहें जब तक की आपको उन कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं हो जाती।


लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत्॥

हिन्दी अनुवाद:
- व्यक्ति के जीवन में बड़ों के सख्त व्यवहार एवं हस्तक्षेप की महत्वता को संबोधित करते हुए आचार्य कहते हैं कि अत्यधिक लाड़-प्यार मिलने से अत्यधिक अवगुण एवं दोष आते हैं, जबकि उचित ताड़न (सख्ती) से गुणों का आगमन होता है। अतः संतान एवं शिष्य को आवश्यकता अत्यधिक लाड़ की नहीं अपितु उचित ताड़ की होती है।
सरल शब्दों में: आशय यह है कि यदि किसी व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप या फिर भय नहीं होगा तो वह जंगली पशु की भाँति आचरण करने लगेगा, कोई अंकुश न होने की स्थिति में वह दुराचार पर उतर आयेगा, इसलिए माता पिता एवं शिक्षक का कर्तव्य है कि वह संतान एवं शिष्यों से अत्यधिक मोह न रख कर उनके आचरण, उनकी वाणी एवं उनके बर्ताव पर अंकुश लगाएं, उनके कृत्यों में उचित हस्तक्षेप करें एवं उनके दुर्व्यवहार पर सख्ती दिखाएँ।


प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः॥

हिन्दी अनुवाद:
- विशाल सागर की गंभीरता को इंगित करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो सागर हमें इतने गंभीर एवं शांत प्रतीत होते हैं, वास्तव में प्रलय की स्थिति में वह भी अपनी सीमा लांघ कर, किनारों को ध्वस्त कर सभी कुछ जलमग्न कर देता है अर्थात तबाह कर देता है, किंतु वास्तव में साधु प्रवृत्ति के मनुष्य विकट से विकट परिस्थिति में भी अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नही करते और शांत रहते हैं। अतः ऐसे साधु मनुष्यों की महानता विशाल सागर से भी अधिक है।
सरल शब्दों में: श्रेष्ठ चरित्र एवं उत्तम आचरण वाले मनुष्य परिस्थितियों से घबराकर अथवा संकट के समय अपना आपा नहीं खोते, वह शांत एवं मर्यादित बने रहते हैं एवं परिस्थितियों के सामान्य होने तक धीरज धरते हैं। यही उनकी महानता है।


रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥

हिन्दी अनुवाद:
- शिक्षा की महत्वता पर जोर देकर आचार्य कहते हैं कि सुंदरता एवं यौवन से संपन्न होते हुए भी, श्रेष्ठ कुल में जन्म लेने पर भी अशिक्षित मनुष्य उस पुष्प के समान अशोभनीय है जिसमें कोई सुगंध नहीं होती।
सरल शब्दों में: शिक्षित मनुष्य एक बेहतर शिक्षित समाज का निर्माण करता है, नई नई संभावनाओं को खोज कर राष्ट्र निर्माण में योगदान देता है एवं साथ ही आमजन के विकास के लिए नवीन योजनाओं का गठन करता है, अतः विद्यावान एवं गुणी मनुष्यों के समक्ष अशिक्षित सुंदरता, यौवन, यहाँ तक की कुल की श्रेष्ठता सभी कुछ निम्न है, जो वास्तव में एक अच्छे समाज एवं राष्ट्र का निर्माण न कर सके। 


उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥

हिन्दी अनुवाद:
- इस श्लोक के माध्यम से कौटिल्य कहते हैं कि जिस प्रकार व्यापार से गरीबी और ईश्वर की स्तुति से पाप का अंत होता है, उसी प्रकार शांत रहने से कलैश (झगड़े) एवं जागने से डर नहीं रहता।
सरल शब्दों में: अर्थात यदि आप दरिद्र हैं तो व्यापार करें, व्यापार से आपका आर्थिक विकास होगा, यदि आपसे पाप हुए हैं तो ईश्वर की वंदना करें और उसके बताये मार्ग पर चलें, आपके पापो का अंत होगा, यदि कलह की स्थिति बनती है तो आप मौन रहें, इससे बात और नहीं बिगड़ेगी और यदि आप किसी भी वस्तु या वाकये से भयभीत हैं या आपको किसी तरह की कोई चिंता अथवा परेशानी है तो उसके संबंध में स्वयं को जागरूक रखें, आपका भय खत्म हो जायेगा।


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