पाबंदी - अनचाह अंकुश । RESTRICTION - Unwanted Controls


जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी जीव अपने मन की इच्छाओं के अनुसार कर्म, व्यवहार एवं अनुसरण करना चाहते हैं, जो हमें सही लगता है, जैसे सही लगता है उसी के अनुरूप ढलना चाहते हैं, आगे बढ़ना चाहते हैं । हालांकि हमारा विवेक इतना भी अव्वल दर्ज़े का नहीं होता की हमें जो सही लगे वही सही हो मगर फिर भी हम किसी और को हम पर फैसले लेने का हक नहीं देना चाहते और अपने मुताबिक जीवन निर्वाह करना चाहते हैं । हमारे जीवन में लिए गए सही या गलत फैसले सिर्फ हमसे नहीं बल्कि हमसे जुड़े हुए तमाम लोगों ( माँ - बाप, दोस्त - रिश्तेदार, जान पहचान वालों ) पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालते हैं । इन्हीं प्रभावों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए हमारे कर्मों, आचरण एवं व्यवहार पर अंकुश लगाया जाता है जिसको कभी कभी हम बड़ी सहजता से स्वीकार कर लेते हैं किंतु कुछ अंकुश स्वीकारना हमारे लिए अत्यंत कष्टप्रद होता है । बस यही है पाबंदी ।

हमें शांत मन से,गहराई से समझना होगा की हम पर जो पाबंदियाँ लगाई गयी हैं, या फिर हम जो पाबंदियाँ किसी अन्य पर लगा रहे हैं वह वास्तव में उचित हैं अथवा अनुचित । पाबंदियाँ वास्तव में कुछ अन्य अच्छे गुणों के साथ मिलकर एक आदर्श पुरुष का निर्माण कर सकती हैं, इसके उलट पाबंदियाँ यदि बेवजह हों, हीनभावना की उपज हों तो समाज को ऐसे मनुष्य मिलेंगे जो समाज को खंडित करेंगे, शर्मसार करेंगे एवं हानि पहुँचायेंगें ।

आईये एक लघु कहानी (Short Story) के माध्यम से पाबंदियों की महत्वता को समझते हैं :


बृजमोहन एक छोटे से कस्बे में मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करता था, बचपन में ही उसके सर से माँ - बाप का साया उठ गया था, वह जीवन निर्वाह के जितने भी गुण समाज से सीख पाया था वह उसके लिए पर्याप्त थे । जब भी वह किसी असमंजस में होता तो किसी बुजुर्ग से मदद लेने से नहीं चूकता । वह जानता था की समाज में उससे अधिक गुणी एवं अनुभवी लोग हैं, उसके मृदुल स्वभाव एवं उत्तम व्यवहार से वह सभी का हृदय जीत लेता था । समय के साथ साथ उसने तरक्की की और जीवन निर्वाह का अनुभव लिया । तत्पश्चात उसने अनपढ़ होते हुए भी उज्जवल भविष्य के लिए एक पढ़ी लिखी नवयुवती से विवाह किया । वह खुश था, उसके काम में तरक्की थी और जीवन संगिनी का भी भरपूर साथ था । उसके जीवन का उत्तम दौर चल रहा था मानो, विवाह के वर्ष उपरांत ही दो जुड़वा बच्चो के आने से उसका परिवार संपूर्ण हो गया । वह अपने बाल्यकाल के सभी दुखों को भूल गया और इस पारिवारिक सुख का आनंद लेने लगा ।

समय अपनी गति से बीत रहा था और बच्चे और व्यवसाय दोनो ही तेजी से बड़े होते चले गए । अपने कोमल स्वभाव के कारण और पारिवारिक कलेश से दूर रहने की सोच कर बृजमोहन ने धर्मपत्नी एवं बच्चों के आचरण और कार्यों में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप न करने की ठान ली थी । बृजमोहन अपने काम के प्रति बेहद संवेदनसील था किंतु रुपया पैसा आने से, साथ ही किसी प्रकार की कोई जवाबदेही या रोक-टोक न होने की वजह से उसकी धर्मपत्नी का स्वभाव बदलने लगा था । अहंकार के भाव उसके चेहरे और बोल में चमकने लगे थे जिसका दुष्प्रभाव उसके बच्चों पर भी असर डाल रहा था । बृजमोहन व्यवसाय और पारिवारिक सुख में इतना ध्यानमग्न था की उसे लग रहा था भगवान मानो उसके जीवन में आये हर दुख के एवज में उसे सुख ही सुख दिये जा रहे थे ।

किंतु फिर एकाएक उसका ध्यान टूटा जब उसकी धर्मपत्नी एवं बच्चों की अनुचित मांगे एवं जरूरतें घर की तिजोरी तोड़कर उसके व्यवसाय तक आ पहुँची । धर्मपत्नी की फिजूल खर्ची, साज श्रृंगार की अनुचित मांगे, आभूषण एवं वस्त्रों की बेवजह खरीदारी, दूसरी और बच्चों की बुरी संगत, शराब-जुआ-धूम्रपान, अनैतिक कृत्य बृजमोहन को शर्मिंदा कर रहे थे । धर्मपत्नी और बच्चे अब बृजमोहन के कहने सुनने में नहीं रह गए थे और न ही बृजमोहन के परिवार के मुखिया होने की उन्हे कोई चिंता थी ।


बृजमोहन अपने परिवार की इस दशा के लिए खुद को कोष रहा था कि उसके परिवार का पतन उसकी नसमझी की वजह से हुआ है । उसकी हिम्मत टूटने लगी थी, वह अपने परिवार को बिखरते हुए, बर्बाद होते हुए देख कर मन ही मन हार चुका था, वह इस तरह के जीवन को समाप्त कर देना चाहता था । तभी उसे उसकी अंतरात्मा और जीवन निर्वाह के अनुभव ने एक युक्ति सुझाई, पाबंदी लगाने की युक्ति, धर्मपत्नी एवं बच्चों के अनैतिक कार्यों एवं आचरण पर अंकुश लगाने की युक्ति ।


बस उसी दिन से बृजमोहन ने पत्नी और बच्चों से सवाल जवाब करने शुरू कर दिये, उन्हें उनके आचरण, अनुचित मांगों एवं गलत संगत के लिए टोकना शुरू कर दिया, उनकी गैर जरूरती मांगों पर, असभ्य आचरण पर अंकुश लगाना शुरू कर दिया किंतु साथ ही वह यह भी ध्यान रखता की जिस प्रकार की पाबंदी वह लगा रहा है, या फिर रोक-टोक वह कर रहा है वह भी उचित हो तथा उसकी पत्नी, बच्चों एवं समाज के लिए साकरात्मक हो । अब धीरे धीरे उसकी पत्नी और बच्चों का रवैया बदलने लगा था, पारिवारिक सुख एवं व्यवसाय में धन-धान्य की दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की होने लगी, धर्मपत्नी का जीवन सच्ची खुशियों से भर रहा था, बच्चे बृजमोहन के साथ व्यवसाय को बढ़ाने में योगदान देने लगे थे । परिवार अब फिर से उन्नति की ओर अग्रसर था । अब उन्हें भी समझ आने लगी थी पाबंदियों की महत्वता और वह भी ले रहे थे जीवन निर्वाह के उत्तम अनुभव ।
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