आखिरी मंजिल - हाँ मैं राही हूँ, इक भीड़ भरी राह का ।


 हाँ मैं राही हूँ, इक भीड़ भरी राह का,

पर इस राह पे शायद मेरी मंजिल नहीं है

न जीने की वजह, न चलना ही सजा,

शायद मेरे सीने में, दिल नहीं है।

हाँ मैं राही हूँ, इक भीड़ भरी राह का,

पर इस राह पे शायद मेरी मंजिल नहीं है।।



सपने टूटते रहे, अपने रूठते रहे,

हाँ आये थे कुछ दामन मेरे भी हिस्से में,

मगर कम्बख्त हाथ से छूटते रहे।

अब सोचता हूँ बैठकर तो - ध्यान में आता है,

वो भी अपने ही थे, जो मुझे लूटते रहे।।


खैर अब मुझसे न कहो, कोई किस्सा मुफ्लिशी का,

की मैंने एक उम्र बितायी है फाके के स्वाद में।

जब तक लुट सके, लुटते रहे ख़ुशी से,

और फिर रो दिए लुटकर, फाका ही याद में।।




और गनीमत रही की, अकेला ही चला था सफर में

खुद से ही निराश था, खुद पे ही गुरुर था।

खुद से ही लड़ाई थी, खुद से हार जीत की,

खुद से ही जीतना, खुदमे एक सुरूर था।।



आखिर मिटा रहा हूँ, खुद अपने ही निशान मैं,

थकी हारी सी हस्ती, अधूरी सी पहचान मैं।

उजड़ा सा चमन, बिखरा गगन मिटा रहा हूँ,

और मिटा रहा हूँ, हर गम और मुस्कान मैं।।



चलो वादा रहा, मरने से पहले इतल्ला कर दूंगा,

शायद ख़ुशी मिले तुम्हे, मेरी मौत की खबर से।

आज़ाद हो जाओगे तुम, मेरी यादो के क़हर से,

और हम आज़ाद हो जायेंगे, जिंदगी के सफर से।।




देखा आज़ाद होना इतना भी मुश्किल नहीं है,

हाँ मैं राही हूँ, इक भीड़ भरी राह का,

पर इस राह पे शायद मेरी मंजिल नहीं है।

न जीने की वजह, न चलना ही सजा,

शायद मेरे सीने में, दिल नहीं है।।


हाँ मैं राही हूँ, इक भीड़ भरी राह का,

पर इस राह पे शायद मेरी मंजिल नहीं है।।0।।

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