सोच और समझ - एक अद्भुत शक्ति | THINKING & UNDERSTANDING - An Amazing Power



यूँ तो सुनने, विचारने और बोलने के लिए जीवन में कितने ही शब्द हैं किंतु जीवन में विचारों एवं अनुभवों का बहुत ही बड़ा महत्व है और इन्ही से उपजती है हमारी सोच और समझ। यह एक ऐसा विषय है जो स्वतः शास्त्र है, जो एक तीक्षण शस्त्र है जिसकी सहायता से बड़े से बड़े विवाद सुलझ जाते है, कठिन से कठिन परिस्थितियां सामान्य हो जाती हैं परंतु यदि इस शस्त्र का उपयोग गलत तरीके से किया जाए अथवा स्वार्थवश किया जाए तो संभवतः छोटे से छोटे विवाद से भयंकर युद्ध की स्थिति बन सकती है। यह एक ऐसा गुण अथवा शक्ति है जो पूर्णतः आपके अनुभव, बुद्धि और विवेक के अनुरूप आपमें विकसित होती है, यह आपके धैर्य, किसी भी स्थिति को सुनने और समझने और साथ ही किताबी एवं सामाजिक ज्ञान को दर्शाती है। यदि आपकी सोच और समझ आपके गुणों, शालीनता और विवेक की उपज है तो केवल आप ही नहीं अपितु संपूर्ण समाज इसके सकारात्मक फलों से कृतज्ञ होगा, इसके विपरीत यदि यह अहंकार, जल्दबाज़ी एवं मूर्खता की देन है तो यह समस्त सृष्टि के लिए एक अभिशाप मात्र है।

आज इस शब्द को समझने के लिए हम किसी काल्पनिक कहानी का सहारा नहीं लेंगे बल्कि अपने ही पौराणिक ग्रंथों की सत्य घटनाओं से ही कुछ अच्छा एवं प्रभावशाली सीखने की कोशिश करेंगे। आईये जानते हैं उन अवस्थाओं या घटनाओं के विषय में जो हमें सोचने और समझने की अपार शक्ति से केवल अवगत ही नहीं कराएंगे अपितु कुछ अच्छा भी सिखायेंगे।


"पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम के जीवन से हमें एक आदर्श जीवन जीने के साथ-साथ ही अनेक प्रकार की मूलभूत शिक्षाएं प्राप्त होती हैं। एक अच्छी सोच, एक उत्तम समझ भी उसमें सदैव निहित होती है। जब पिता दशरथ के वचनबद्ध होने पर श्री राम को वनवास हुआ तब उन्होंने पिता की वचनबद्धता की विवशता को समझते हुए अपनी उत्तम सोच, आदर्शता, गूढ़ समझ और निःस्वार्थ भाव का परिचय देते हुए पिता, माता अथवा किसी अन्य से किसी भी तरह का विवाद न करते हुए और अपने पिता-माता से आज्ञा लेकर १४ वर्षों का वनवास स्वीकार किया। यदि वह पिता की विवशता का मान नहीं रखते, माता की आज्ञा का पालन नहीं करते, वचनबद्धता के महत्व को नहीं समझते तो वह कभी मर्यादा-पुरुषोत्तम, आदर्शवादी श्री रामचंद्र नहीं कहलाते। उनकी अच्छी सोच-समझ, उनका ज्ञान, उनका जीवन संपूर्ण सृष्टि के लिए फलदायी बन गया। इसके विपरीत रावण की शक्ति, उसके क्रोध, उसकी धन-दौलत और अपार गूढ़ ज्ञान ने उसे अहंकारी बना दिया, महान पंडित होते हुए, वेदों-शास्त्रों का गूढ़ ज्ञान होते हुए भी उसका अहंकार और नासमझी उसकी मृत्यु और वंश समाप्ति के अंत का कारण बने। यदि उसे वास्तविकता की समझ होती, वह अपने कृत्यों और फैसलों पर अहंकार को त्याग कर विचार करता तो वह जीवन और जीवनशैली को भी भलीभाँति समझ पाता और वह भी आदर व सम्मान का भागीदार बनता।" - "अब अगर एक आम मनुष्य अपनी सोचने और समझने की शक्ति को सही दिशा में, सही तरीके से, कुछ अच्छे के लिए इस्तेमाल करे तो उसके लिए सभी कुछ प्राप्त करना संभव है जैसे राजा हरिश्चंद्र ने सत्य के मूल भाव को समझ कर उसी का पालन किया।

कितनी ही कठिन परेशानियों, विषम परिस्थितियों में होते हुए भी अपने कर्तव्य और कर्म का मान और सत्यता को स्वीकार कर उचित और अनुचित को समझा और अंततः ईश्वर ने उन्हें उनकी कर्तव्यप्रायंता के मूल को समझने के लिए उन्हें साक्षात दर्शन दे कर उनका जीवन कृतार्थ किया और वह भी अपने गुणों और उनके यतार्थ मूल्य को समझ कर जगत के लिए एक आदर्श बन गए।" - "इतिहास ने जाने कितने ही ऐसे महान अनुभवों को अपने आँचल में सितारों की तरह सजा कर रखा है जो हम सभी के लिए प्रेरणा बन गए, कितने ही मनुष्यों ने अपनी सर्वोत्तम सोच-समझ के बल पर दुनिया में अपना परचम लहराया है और खुद को आदर्श स्थापित किया है। किंतु कुछ ऐसी भी सत्य घटनाएं हैं जो महान लोगों की मूर्खता दर्शाती हैं, जो हमें उनकी तुच्छ सोच और नासमझी से अवगत कराती हैं और उनके अंत और अपमान की कहानी चीख चीखकर सुनाती हैं। ऐसा ही एक सत्य महाभारत भी है, जो तुच्छ सोच से उत्पन्न द्वेष, अहंकार, असत्य, कलैश, षड्यंत्र, प्रताड़ना और मोह के कारण हुई।

राजा धृतराष्ट्र को सभी कुछ ज्ञात था फिर चाहे कौरवों का बाल्यकाल से ही पाण्डवों का अपमान करना हो, अथवा युवावस्था में अपने राज्य और शक्ति के अहंकार से भ्रमित कौरवों द्वारा पाण्डवों से द्वेष करना, उन्हें प्रताड़ित करना हो। कौरवों और मामा सकुनि के चौसर षड्यंत्र पर पांचाली के साथ हुई अमानवीयता का ज्ञान भी भलीभाँति था किंतु पुत्रमोह ही ऐसा था की उसके समक्ष महान राजा की सोच तुच्छ थी। सभा में उपस्थित सभी को अपनी विवशता के समक्ष कुछ समझ नहीं आया और पांचाली पर सगे संबंधियों के सम्मुख ही परिवार के ही सदस्यों द्वारा यातनाएं होती रही। यदि अपनी उत्तम सोच और नैतिकता का परिचय देकर पांचग्राम पाण्डवों को बड़ा हृदय कर राजा धृतराष्ट्र दानस्वरूप ही सही सौंप ही देते तो महाभारत का युद्ध कभी होता ही नहीं। किंतु पुत्रमोह और शक्ति के वशीभूत होकर न केवल राजा धृतराष्ट्र ने बल्कि वहाँ उपस्थित सभी ने विवशता को ढाल बनाकर अपनी तुच्छ सोच और नासमझी से महाभारत को जन्म दिया।"

किसी भी विषय की गंभीरता को कोई मनुष्य कैसे विचारता है, कितनी गहराई से समझता है वह अपने जीवन के अनुभवों से प्राप्त करता है और अपने जीवन सरल को बनाने की कोशिश करता है इसलिए हम देखते है कि जब भी कुछ पेचीदा मामला होता है तो हमेशा बड़े बुजुर्गों की सलाह ली जाती है क्योंकि वह अत्यधिक अनुभवी, धैर्यवान एवं परिपक्व सोच के होते हैं। अतः किसी भी विषय को गंभीरता से सुनये, उस पर गहराई से चिंतन कीजिये और तब जाकर कोई निश्चय कीजिये। परिस्थितियां समय समय पर ऐसे ही परीक्षा लेंगी जो आपकी उच्च या तुच्छ सोच और समझ को संसार के समक्ष परिभाषित करेंगी।
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