मुक्ति और आज़ादी - जीवन का संघर्ष | EMANCIPATION & FREEDOM - Struggle Of Life


आम भाषा एवं समझ में दोनों ही एक लगते हैं क्यूंकि दोनों का ही शाब्दिक अर्थ स्वतंत्रता है। किन्तु यदि जरा ठहर कर विचार किया जाये तो समझ आता है कि दोनों ही शब्द एक दूसरे से अतयधिक भिन्न हैं। शब्द का सही इस्तेमाल सही जगह करना बहुत अधिक आवश्यक है अन्यथा आप जो कहना चाहते हैं, आप जो व्यक्त करना चाहते हैं, आपके भाव, आपका विषय, आपका ज्ञान एवं आपके व्यक्तित्व सभी का असर हल्का अथवा हास्यप्रद हो जायेगा।  हिंदी शब्दों का चयन आसान लगता है चूँकि यह सहज एवं सरल भाषा है, लेकिन शब्दों के सही इस्तेमाल से आप एक उत्कृष्ट वादक के रूप में जाने जाते हैं और समाज में आपका एक अलग व्यक्तित्व बन जाता है। हिंदी भाषा में जाने ऐसे कितने ही शब्द हैं जिनके विषय में हम भविष्य में जानेंगे, सीखेंगे एवं पढ़ेंगे किन्तु आज हम बात कर रहे हैं मुक्ति एवं आज़ादी की।

देखिये, सरल भाव से समझिये मुक्ति वह है जो किसी की निजता से सम्बंधित होती है एवं व्यक्तिगत होती है, जबकि आज़ादी वह है जिसका सम्बन्ध व्यक्तिगत अथवा किसी समूह, समाज अथवा दल से होता है। मुक्ति का अभिप्राय व्यवहार, आदतों, रूचियों, विचारों से मुक्ति है, जो की किसी भी मनुष्य से व्यक्तिगत तौर पर जुडी है, वहीं किसी समाज, समूह अथवा किसी देश को किसी शासक, नियमों, करों, प्रथाओं आदि से उबारना अथवा मुक्त करना आज़ादी है।



आईये, दोनों के अंतर को कहानी के माध्यम से रूचिबद्ध तरीके समझने की कोशिश करते हैं:
५६३ ईसा पूर्व नेपाल के तराई क्षेत्र में नौतनवा से कुछ ही मील की दूरी पर कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी और राजा शुद्धोदन के यहाँ पुत्र सिद्धार्थ ने जन्म लिया। सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही अत्यधिक भावुक एवं परोपकारी थे। जन्म के सातवें दिन ही माता को खो देने के बाद मौसी गौतमी की देख-रेख में पालन-पौषण हुआ एवं महान गुरु विश्वामित्र से पठन-पाठन, वेद-उपनिषद, राजनीति-युद्धनीति, शस्त्रों एवं शास्त्रों की शिक्षा ली। यूँ तो उनके शस्त्रों एवं शास्त्रों के कौशल के समक्ष कोई भी टिक नहीं पता था किन्तु वह अपने भावुक हृदय एवं संवेदनशीलता के चलते स्वयं ही पराजय स्वीकार कर लेते थे क्योंकि वह किसी का भी दुख सहन नहीं कर पाते थे फिर चाहे वह मित्र हो अथवा शत्रु। घुड़दौड़ में दौड़ते घोड़े के मुँह से झाग निकलने पर, घोड़े के थके होने का विचार कर बिना विलम्ब किये, स्वयं ही पराजय को स्वीकार लिया और घोड़े को पानी पिलाने लगे। चचेरे भाई देवदत्त का तीर द्वारा हंस का शिकार करने पर स्वयं भी अपार पीड़ा की अनुभूति करने लगे। बिना कुछ अन्य विचारे हंस का उपचार किया और हंस को जीवनदान दिया। ऐसे ही कितने ही मौकों पर सिद्धार्थ दूसरों के दुःख एवं पीड़ा की अनुभूति कर के स्वयं भी दुखी रहने लगे। पिता शुद्धोदन भी उनकी इस परिस्थिति से अनजान नहीं थे, उन्हें डर था कि यदि सिद्धार्थ इसी प्रकार भावुक एवं परोपकारी बने रहेंगे तो वह सिद्धार्थ को जल्द ही खो देंगे।

एक पिता होने के चलते अपने पुत्र और एक राजा होने के चलते एक राजकुमार को बचाने के लिए उन्होंने सिद्धार्थ को सांसारिक बंधनों में बाँधने के लिए १६ वर्ष की आयु में उनका विवाह दंडपाणि शाक्य की पुत्री यशोधरा से करा दिया जिनसे उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उन्होंने राहुल रखा, साथ ही तीनों ऋतुओं के लिए तीन सुन्दर और समस्त भोग विलास से तृप्त महल बनवाये किन्तु सिद्धार्थ का संघर्ष चलता ही रहा। सिद्धार्थ का युद्ध उनके स्वयं के साथ था, वह जहाँ भी जाते उन्हें केवल दुःख ही दुःख दिखाई पड़ता, उन्हें लोगों, पशु-पक्षियों आदि की पीड़ा का अनुभव होता और वह जितनी भी कोशिश करते पर इससे विमुख नहीं हो पाते। वह समझ गए थे कि धन-धान्य, वेद-उपनिषदों का ज्ञान, सुन्दर पत्नी और कीर्तिवान पुत्र, महलों का रहन-सहन सब मिथ्या है, यह केवल भ्रम है, अब उन्हें परम ज्ञान की आवश्यकता थी। अंततः एक दिन वह इस सब से इतना अधिक प्रभावित हो गए की वह अपने पुत्र एवं पत्नी को छोड़कर बिन बताये घर से निकल गए और संन्यास लेकर भिक्षुक बन गए। किन्तु उनका संघर्ष जारी रहा और वह सत्य की खोज में भटकते रहते और अंतर्ध्यान लगाते।


और फिर एक रात वैशाख माह की पूर्णिमा को बिहार के पटना जिले के गया नामक क्षेत्र में एक वट वृक्ष के नीचे अंतर्ध्यान की मुद्रा में बैठे थे, तभी वहां सुजाता नाम की एक महिला आती है जिसने वट वृक्ष से पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी थी। मन्नत पूर्ण होने पर महिला खीर बना कर वट वृक्ष को भोग लगाने आती है और अंतर्ध्यान सिद्धार्थ को वट वृक्ष का साक्षात स्वरुप मान कर उनकी मनोकामनापूर्ती की मंगल कामना करते हुए सिद्धार्थ को खीर दे देती है और कहा जाता है कि उसी रात्रि ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की सत्य की खोज पूरी हुई, उन्हें सत्य का बोध (ज्ञान) हुआ और वह भगवान बुद्ध हो गए और वट वृक्ष महाबोधि वृक्ष हो गया।

सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध बनने तक का सफर अत्यंत संघर्षरत रहा होगा। तमाम ऐशों आराम त्यागना, बंधु-बांधुओं का मोह छोड़ना, भोग-विलास एवं भौतिक सुख-सुविधाओं से विमुख होना, हृदय एवं मस्तिष्क के मध्य गरजते समुद्र से उफनते अनंत सही-गलत विचारों, आदतों एवं रूचियों आदि का मर्दन कर खुद को सांसारिक बंधनो से स्वतंत्र कर सत्य की खोज करना और अपने व्यक्तित्व का पुनर्विकास करना ही असल में मुक्ति है।

अब बात करें आज़ादी की तो हम सभी जानते हैं हमारा प्यारा देश जिसे हिन्दुस्तान कहें तो मुग़ल शासकों के और भारत कहें तो अंग्रेजी हुकूमत के अधीन रहा है। इस देश के लोगों ने जाने कितने ही नरसंहार देखें हैं। हमारे देश का इतिहास गौरवशाली भी रहा है और दयनीय भी। मुगलों के क्रूर शासकों से अपने देश की सम्प्रभुता, संस्कृति, धर्म एवं देशवाशियों की सुरक्षा के लिए मौर्य शासन, चितौड़ शासक महाराणा प्रताप, वीर मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज, महान सम्राट अशोक, रानी चेन्नम्मा, रानी पद्मावती आदि हिन्दुस्तान के न जाने कितने महान राजाओं और रानियों ने हर हर महादेव और महिषासुरमर्दिनी के प्रचंड जयकारों और शंखनाद के मध्य मुगलों को ललकारते हुए भीषण युद्ध में अपने प्राणो का बलिदान दिया।


वहीं बात करे भारत देश की तो अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों, अनियमित एवं अनैतिक करों, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अधिकारों के हनन एवं सांस्कृतिक धरोहरों की लूट-पाट से देश एवं देश जनता को स्वतंत्र करने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बॉस ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया। सरदार भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव ने बहरी हुकूमत को अपनी और अपने देश की जनता की आवाज़ सुनाने के लिए एसेम्ब्ली में बम फोड़ दिया और स्वतंत्रता का जज़्बा लिए जवानी में ही शहीद हो गए और सभी देशवासियों को ऋणी कर गए। चंद्र शेखर आज़ाद जिनके नाम में ही आज़ाद था अपने माता पिता को देश की सेवा के लिए अकेले छोड़ आये और काकोरी काण्ड काण्ड कर सरकारी खजाना लूट लिया ताकि स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए हथियार जुटा सकें और अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली ताकि आज़ाद थे और केवल आज़ाद ही मर जाएँ क्यूंकि गुलामी उन्हें किसी भी हाल में स्वीकार नहीं थी। ऐसे ही महान स्वतंत्रता सैनानी महारानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडेय, महारानी देवी अहिल्याबाई होल्कर, वीर सावरकर, लाला लाजपत राय, उधम सिंह, अश्फाक उल्लाह खान आदि अनगिनत क्रांतिकारियों और आज़ादी के दीवानों ने अपने प्राणों की आहुति देकर देश, समाज, ग्राम और हर एक भारतीय को अंग्रेजी हुकूमत के करों, नियमों और शासकों से स्वतंत्र कराया। फिर बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने आज़ाद भारत का संविधान लिख जाने कितनी ही कुरीतिओं और प्रथाओं से देश के एक बड़े तबके को आज़ादी दी और आगे बढ़ने के सामान अवसर प्रदान किये ताकि समग्र देश एवं देश कि जनता का सुविकास हो सके।

असल में, मुक्ति को पाने के लिए भी आपका आज़ाद होना आवश्यक है। इसलिए आज़ाद रहिये और कोटि कोटि धन्यवाद करिये उन सभी महानायकों एवं नायिकाओं का जिनके बलिदानो से आज आप आज़ाद हैं किन्तु यहाँ से मुक्ति का सफर आपको खुद तय करना है। ये आपके जीवन का संघर्ष है।
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