कल्पना - वास्तविकता अथवा भ्रांति IMAGINATION - Entity or Fallaciousness


आप सभी ने अक्सर ही सुना होगा की वास्तविकता से परे जो भी किया जाए अथवा सोचा या कहा जाए, वह सदैव ही अविश्वसनीय होता है। फिर चाहे परियों का आकाश में तैरना हो, या इंसानो की दुनिया का गहरे सागर में होना, चाहे फिर सिनेमा जगत का स्पाइडर-मैन हो या खुद को बस पल भर के लिए कामयाबी के शिखर पर महसूस करना ही क्यों न हो। हम जो अनुभव प्राप्त कर चुके होते हैं उन्हीं अनुभवों की सहायता से किसी ऐसी वस्तु-विषय की रचना कर देते हैं जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता, जो किसी भी रूप से वास्तविक नहीं होती। हाँ भविष्य में वह सच हो जाए यह अवश्य संभव है। आनुभवों, विचारों और प्रतिभाओं की इसी प्रकार की उपज को हम कल्पना कहते हैं - जो अविश्वस्नीय एवं अवास्तविक होती है।

हाँ.. हाँ.. हम भी समझते हैं कहानी की महत्वता, तो आईये सुनते हैं कहानी और समझते हैं कि कल्पना कैसे अवास्तविक होते हुए भी एक रोज वास्तविकता में बदल जाती है और हमें बस गुमराह ही नहीं करती, हमें छलती ही नहीं बल्कि हमें हमारे सपनो को पूरा करने में भी सहायता करती है :

"रावल जी एक प्रतिभावान व्यवासायी होने के साथ-साथ एक सफल लेखक भी थे। अच्छी खासी धन दौलत और ठाटबाट होना ही बड़ी बात नहीं थी वह स्वभाव के भी धनी थे, बड़ी सी कोठी शहर के बीचों बीच बनवायी थी रावल साहब ने। बस यहीं अपनी सुंदर बीवी तारा और 3 छोटे बच्चों के साथ जीवन का आनंद लेते हुए वह अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। एक व्यवसायी होने की वजह से बड़े बड़े कामयाब लोग उनके पास आते थे और साथ ही एक सफल लेखक होने की वजह से उनकी कल्पना शक्ति भी काफी दुरुस्त थी बस इसी का जादू चला था बच्चों पर। स्कूली शिक्षा के साथ-साथ पिता की ही भाँति बच्चों में भी कल्पना शक्ति कूट कूट कर भरी हुई थी। तीनों बच्चे गुणी, सभ्य और पढाई की महत्वता को समझने वाले थे। बचपन से ही तरह तरह के रहन-सहन, अलग अलग क्षेत्रों में सफल लोगों और पिता की काल्पनिक कहानियों ने तीनों ही बच्चों के लिए यह सोचना और समझना आसान कर दिया था कि उन्हें भविष्य में क्या बनना है और क्या करना है।


वह तीनों जब भी वक्त मिलता वह वैसा ही व्यवहार करते जैसा वह बनने की कल्पना करते। ऐसी कल्पना एवं व्यवहार करने पर उनका रुझान और मेहनत और भी अधिक गहन होती जाती। उनका सबसे बड़ा बेटा मनोहर था जो थोड़ा खोजी स्वभाव का था, वह एक वैज्ञानिक बनना चाहता था, मझला बेटा श्याम जिसका रुझान मनोविज्ञान में था और वह एक चिकित्सक बनना चाहता था, किंतु सबसे छोटा बेटा ऋषि बेहद चंचल और मनमौजी स्वभाव का था वह कभी ये कल्पना करता कभी वो, कभी पुलिस बनता तो कभी बैरिस्टर, कभी चोर तो कभी डाकू। वह बस अपनी कल्पना शक्ति को अपने और बाकी परिवार के मनोरंजन का साधन बना चुका था। जब भी माता पिता या बड़े भाई ऋषि से उसकी भविष्य की योजना पूछते वह तपाक से जवाब देता की उसके पिता का व्यवसाय और पैसा किस काम का यदि उसे खर्चने वाला कोई भी नहीं होगा।

समझ नहीं आता था की वह ऐसा उसके चंचल स्वभाव के चलते करता था या फिर वह असमंजस में था और तय नहीं कर पाता था कि उसका लक्ष्य क्या है? अथवा वह वाकई अपनी कल्पना शक्ति को मनोरंजन के तौर पर इस्तेमाल करने का आदी हो गया था। खैर समय अपनी गति से बीता, रावल साहब के तीनों बेटे अब अपनी पढाई पूरी कर ही चुके थे और उनका बड़ा बेटा मनोहर अपनी मेहनत, लग्न और अच्छे ज्ञान की बदौलत स्कॉलरशिप लेकर तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने एवं रोजगार करने विदेश चला गया, मझला बेटा श्याम भी चिकित्सा के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर चुका था और उसने भी रावल साहब से और ज्यादा ज्ञान अर्जित करने की जिद्द कर के विदेश की राह पकड़ी और वहाँ एक बड़े मनोवैज्ञानिक संस्थान में पढ़ना और पढ़ाना शुरू कर दिया। ऐसा नहीं था की रावल साहब ने कोशिश नहीं की थी उन्हें रोकने की, अपने ही देश में रहकर काम करने की, आगे बढ़ने की मगर मनोहर और श्याम का विदेश जाकर काम करना उनकी कल्पना से उपजे उनके स्वपन का साकार होना ही था।

ऋषि अब भी माता पिता के ही साथ था, उसका व्यवहार अब भी वैसा ही था, उसकी कल्पना आज भी उसके मनोरंजन मात्र का साधन थी। रावल साहब और तारा को उसके कुछ न बन पाने और कोई भी काम न करने की अब फिक्र तो होती थी किंतु २ बेटे उन्हें छोड़ कर जा चुके थे बस ऋषि ही साथ था तो उन्हें संतुष्टि भी होती थी कि अच्छा ही हुआ ऋषि कुछ बन नहीं पाया और उनके साथ है, अन्यथा वह भी अपनी कल्पना और स्वपनों को सच करने के लिए घर से दूर चला जाता। अब ऋषि अकेला ही रह गया था वह किसी भी स्थिति में या किसी बात का बुरा मान कर घर से न चला जाए इसी डर से रावल साहब और तारा ने उसे नौकरी, व्यवसाय या उसके किसी भी उचित-अनुचित कार्य के लिए रोकना-टोकना सही नहीं समझा। बड़े भाईयों के अब साथ न होने की वजह से, किसी भी प्रकार की अब कोई प्रतियोगिता न रह गयी थी और माता पिता की ओर से भी कोई रोक टोक न होने की वजह से होनहार ऋषि की सोच अब सिकुड़ने लगी थी, उसकी कल्पना शक्ति बस बैठ कर खाने, बिना कुछ काम किये जीने, या बस सोते रहने और आराम करने तक ही सिमटने लगी थी।

२-३ साल तक मनोहर और श्याम के पत्र प्राप्त हुए थे किंतु अब अपनी कल्पनाओं और स्वपनों को साकार करने में पूरी तरह मग्न मनोहर और श्याम को पूरे ५ साल हो गए थे की उनका कोई खत या संदेश प्राप्त नहीं हुआ था। रावल साहब को चिंता सताने लगी थी, उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था, व्यवसाय पर ध्यान न दे पाने की वजह से व्यवसाय में भी घाटा होते जा रहा था। रावल साहब की ऐसी दशा और बेटों का यूँ विम्मुख्ख हो जाना धर्मपत्नी तारा को भी अंदर ही अंदर तोड़े जा रहा था मगर ऋषि को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, उलट वह रावल साहब और तारा को ही बुरा भला सुनाने लगता कि उन्हीं की वजह से परिवार की यह हालत हुई है। रावल साहब का व्यवसाय उचित देख-रेख न होने की वजह से पूरी तरह डूब गया, और उस पर व्यावसायिक कर्ज एवं श्याम की शिक्षा पर लिया कर्ज उनकी जमापूंजी और कोठी को खा गया। इस स्थिति को बेटों की बेरुखी से त्रस्त रावल साहब का जीर्ण हृदय सह नहीं पाया और हृदयघात की वजह से उनका निधन हो गया। बेटों की विम्मुख्खता का असर धर्मपत्नी तारा पर भी पड़ा था किंतु पति की यूँ आकस्मिक मृत्यु से तारा ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया। रावल साहब के जाते ही बड़े बड़े लोगों तक उनकी ऊँची पहुँच भी चली गयी, उनका परिवार सड़क पर आ गया था। पिता का निधन और माता का विक्षिप्त होना अब ऋषि के उस झूठे स्वपन और कल्पना को तोड़ रहा था जिसमें आराम था, निक्कमापन था, बैठ कर खाना था। उसने इस तरह की कल्पना कभी की ही नहीं थी कि कभी ऐसा भी कुछ हो सकता है। अब उसे समझ आने लगा था वास्तविकता एवं भ्रांति में अंतर और ऋषि जान गया था कल्पना की शक्ति को कि वह उचित भी हो सकती है और अनुचित भी।"

हम कभी कभी सब कुछ अच्छे से सोच समझ कर ही योजना बनाते हैं की हमें कब क्या और कैसे करना है। जो हमने सोचा है, कल्पना की है अथवा स्वपन देखा है उसे कैसे वास्तविकता में बदलना है। जैसे मनोहर और श्याम ने किया, इतनी सारी मेहनत, लग्न और ज्ञान अर्जित किया और अपनी कल्पनाओं और स्वपनों को साकार कर उन्हें वास्तविकता में बदल दिया, उनकी कल्पना भ्रांति नहीं अपितु वास्तविक बन गयी, किंतु उनसे बस इतनी गलती हुई की उनकी इस कल्पना में उन्होंने कभी अपने माता पिता को स्थान नहीं दिया और कल्पनाओं को पाने के लिए उन्होंने अपनी माता और पिता को खो दिया। वहीं ऋषि की कल्पना में घर परिवार, माता-पिता तो थे किंतु कुछ काम, मेहनत, या लक्ष्य नहीं था और जैसे ही उसके पिता और उनकी धन-दौलत का पतन हुआ उसकी कल्पना मात्र भ्रांति साबित हुई और वास्तविकता में वह भी अपना सब कुछ गंवा चुका था।

इसलिए आप कल्पना कीजिये, स्वपन देखिये, उन्हें वास्तविकता में भी बदलिये किंतु यह भी ध्यान रखिये की जिन माता पिता ने आपको जन्म दिया है, आपके लिए, आपके सपनों, इच्छाओं और कल्पनाओं को पूरा करने के लिए इतना कुछ किया है वह भी आपकी कल्पनाओं का हिस्सा हो। ताकि जब भी भविष्य में आपके स्वपन-आपकी कल्पना साकार हो तो आप खुद को ठगा हुआ न पाएँ और आप कल्पना की शक्ति की वास्तविकता का आनंद उठा सकें।

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