संस्कृत श्लोक - चाणक्य नीति ३ | SANSKRIT SHLOKA - Chanakya Neeti 3

चाणक्य नीति एक ऐसी अद्भुत श्रृंखला है जिसकी सहायता से न केवल सफल जीवन जीने की प्रेरणा और मार्ग मिलता है बल्कि, चाणक्य नीति के माध्यम से हम अपने दुश्मनों एवं प्रतियोगियों को समय पर पहचान कर अपनी एवं अपनों की सुरक्षा करने के साथ ही उन्हें बड़ी हानि भी पहुँचा सकते हैं। और अपनी सफलता निश्चित कर सकते हैं। घर कैसा हो, व्यवहार कैसा हो, आचरण कैसा हो, अनुसरण कैसा हो, खान पान कैसा हो, सम्मान कैसा हो, स्त्री कैसी हो, पुत्र कैसा हो, मित्र कैसे हों, विचार कैसे हों आदि के विषय में अध्ययन करते हुए और चाणक्य नीति से सीखते हुए आइये आगे बढ़ते हैं।


दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥

हिन्दी अनुवाद:
- कौटिल्य कहते हैं कि दोषपूर्ण स्त्री, झूठा मित्र, जबानजोर सेवक अथवा जहरीले सर्प वाले घर में रहना मात्र ही मृत्यु का कारण है, इसमें कभी संदेह न करें।
सरल शब्दों में: जिस घर में नीच पत्नी हो, निरंतर झूठ बोलने वाला मित्र हो, बात बात पर उत्तर देने वाला सेवक हो या फिर जहरीला सर्प हो वहाँ निसंदेह मृत्यु होना निश्चित है।

धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥

हिन्दी अनुवाद:
- आचार्य कहते हैं कि ऐसा कोई भी स्थान या देश जहाँ कोई व्यापारी, वेदों का पठन पाठन करने वाला कोई विद्वान, कोई राजा एवं वैद्य और कोई नदी, ये पांचो न हों तो वहाँ एक दिन भी न रहें।
सरल शब्दों में: उत्तम जीवन के लिए व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं आहार अति आवश्यक होता है अतः व्यापारी, विद्वान, राजा, चिकित्सक एवं जल के बिना कोई भी स्थान या देश अथवा वहाँ रहने वाले नागरिकों का सर्वांगीण विकास संभव नहीं अतः ऐसे किसी स्थान या देश में नहीं रहना चाहिए।

भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर वरांगना ।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥

हिन्दी अनुवाद:
- आचार्य के अनुसार मन चाह भोजन, उत्तम पाचन शक्ति, प्रायप्त काम इच्छा, सुंदर पत्नी, धन एवं वैभव और दान पुण्य आदि की प्राप्ति किसी सामान्य तपस्या से मिलने वाला फल नहीं होता बल्कि पिछले जन्म के सत कर्मों एवं कठोर तपस्या का प्रतिफल होता है।
सरल शब्दों में: यदि आप मन चाह भोजन ग्रहण करना चाहते हैं तो इसके लिए आपको परिश्रम भी करना होगा, अपनी पाचन शक्ति को सुधारने के लिए नियत व्यायाम भी करना होगा, आपकी काम शक्ति को कायम रखने के लिए आपको संयम एवं तप करना होगा, सुंदर स्त्री की इच्छापूर्ति के लिए आपको बुद्धि और साथ ही अपने शरीर एवं उसकी सुंदरता को बनाये रखना होगा, धन एवं वैभव के लिए कठोर परिश्रम एवं एकाग्रता बनाये रखनी होगी और साथ ही दान एवं पुण्य के लिए वेदों और धर्म का अनुसरण करना होगा। अतः सत्य यही है कि आपके परिश्रम एवं गुणों के आधार पर ही आपको सभी कुछ प्राप्त होता है।

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः सः पिता यस्तु पोषकः ।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः सा भार्या या निवृतिः ॥

हिन्दी अनुवाद:
- चाणक्य कहते हैं कि वास्तव में पुत्र वही है जो पिता को ही सर्वोपरि माने, और पिता भी वही है जो अपनी संतान का पालन-पोषण करे। जिस पर विश्वास किया जा सके वही मित्र है और पत्नी वही है जो विषम परिस्थितियों में भी हृदय को आनंदित करे।
सरल शब्दों में: एक अच्छे और गुणी पुत्र के लिए उसके पिता के वचन, मान-सम्मान और आज्ञा ही सर्वत्र होती है। जन्म देना ही केवल पिता का दायित्व नहीं होता, पिता वास्तव में वही है जो अपनी संतान का पालन-पोषण कर सके और अपनी संतान को बेहतर शिक्षा और जीवन दे सके। एक सच्चा मित्र बंधु की भाँति होता है। अतः मित्रता में विश्वास होना एवं मित्र का विश्वासपात्र होना अति आवश्यक है। दांपत्य जीवन में पति पत्नी दोनों ही एक दूसरे के सहायक होते हैं, किंतु पत्नी को चाहिए कि कैसी भी परिस्थितियों में वह अपने पति को निराश न होने दे और प्रेम, करुणा और धैर्य से हर तरह से अपने पति का सहयोग करे।

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम् ।
कष्टात्कष्टतरं चैव परगृहेनिवासनम् ॥

हिन्दी अनुवाद:
- चाणक्य नीति श्लोक के माध्यम से चाणक्य कहते हैं कि निःसंदेह मूर्ख होना कष्ट है, बाल्यकाल से निकल यौवन भी कष्ट ही है, किंतु सबसे बड़ा कष्ट किसी अन्य के घर में रहना है।
सरल शब्दों में: यदि हम मूर्ख हैं तो यकीनन हम हास्य के पात्र हैं और समाज हमारी मूर्खता पर हँसेगा जिससे हमें तकलीफ होगी, यौवनावस्था में कड़ी मेहनत और श्रम, विफलताओं का दौर, वैभव आदि की इच्छा हमें शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक तौर पर भी पीड़ा पहुँचाती है और हम कष्ट भोगते हैं किंतु इनसे भी अधिक पीड़ा और तकलीफ हमें होती है जब हमारे पास रहने के लिए स्वयं का घर नहीं होता और हम किसी अन्य के घर रहने के लिए मजबूर होते हैं।

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥

हिन्दी में अनुवाद:
- चाणक्य कहते हैं कि प्रत्येक पर्वत पर हीरे और रतन प्राप्त नहीं होते और न ही हर गज के माथे से मुक्तामणि ही प्राप्त होती है। ठीक ऐसे ही संसार में मनुष्यों की मात्रा में कमी होने पर भी महापुरुष मिलना सरल नहीं और ऐसे ही प्रत्येक वन में चंदन का वृक्ष प्राप्त नहीं होते।
सरल शब्दों में: संभवतः कितने ही पर्वत धरातल पर मौजूद हैं किंतु सभी पर मणि-माणिक्य उपलब्ध नहीं होते और न ही भारी मात्रा में हाथियों के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है, अर्थात कुछ ही चुनिन्दा पर्वत और हाथियों से यह प्राप्त होती हैं। बिल्कुल ऐसे ही संसार में कुछ ही महापुरुष हैं जो सर्वत्र एवं सरलता से नहीं मिलते, उन्हें खोजना पड़ता है अर्थात उनका मिलना दुर्गम है ठीक वैसे ही जैसे किसी वन में अनेकों वृक्षों के मध्य चंदन का वृक्ष खोजना दुर्गम होता है।

बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा ।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता ॥

हिन्दी अनुवाद:
- जीवन की प्रार्थमिकता समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि विद्वानों एवं ब्राह्मणों का बल विद्या ही है एवं किसी राजा का बल उसकी सेना में निहित होता है। ठीक वैसे ही वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल सेवा प्रदान करना है।
सरल शब्दों में: विद्वान एवं ब्राह्मण अपने ज्ञान एवं विद्या का सहारा लेकर ख्याति प्राप्त करते हैं, और राजा के पास किसी राज्य को जीतने के लिए उसकी सेना होती है। वैश्यों अपने धन के बल सब कुछ प्राप्त करते हैं और शूद्र समाज अपने कार्य और मांगे मनवाने के लिए अपनी सेवाओं का सहारा लेते हैं।

दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः ।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति ॥

हिन्दी अनुवाद:
- गलत आचरण, बुरे स्वभाव, अकारण ही अन्य मनुष्यों को क्षति पहुँचाने वाले दुष्ट व्यक्ति से मैत्रिय संबंध रखने वाला श्रेष्ठ पुरुष भी जल्द ही समाप्त हो जाता है अर्थात अपनी श्रेष्ठता खो देता है चूंकि संगति का प्रभाव पड़ कर ही रहता है।
सरल शब्दों में: यदि आपमें अच्छाईयां हैं, आप गुणी हैं, श्रेष्ठ हैं किंतु आप की मित्रता दुष्ट, कपटी और दुराचारियों से है तो उनकी संगति का असर आप भी पड़ेगा और जल्द ही आप भी अपनी श्रेष्ठता त्याग कर दुष्ट बन जायेंगे। अतः ऐसे दुष्ट लोगों से दूर रहे।

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥

हिन्दी अनुवाद:
- चाणक्य कहते हैं कि जिस प्रकार किसी भी मनुष्य के आचरण अथवा व्यवहार से उस मनुष्य के कुल का परिचय होता है और भाषा से उस मनुष्य के देश अथवा राज्य का। ठीक वैसे ही उसके स्नेह का परिचय उसके द्वारा दिये जाने वाले आदर सत्कार से होता और ऐसे ही किसी भी मनुष्य के शरीर को देख कर उसके भोजन के विषय में पता चलता है।
सरल शब्दों में: उपर्युक्त श्लोक के अनुसार आप किसी मनुष्य के विषय में उसकी आदतों एवं व्यवहार से जान सकते हैं। आप किसी के शरीर की दृढ़ता अथवा निर्बलता से उसके खान पान के विषय में जान सकते हैं, कोई आपसे वास्तव में प्रेम करता है अथवा ढोंग यह तब पता चलता है जब वह आपका स्वागत करता है अथवा निमंत्रण देता है, कोई किस देश या राज्य से है उसकी भाषा अथवा बोली से आप जान सकते हैं और कोई मनुष्य अच्छे कुल का है अथवा नहीं यह उसके आचरण से परिलक्षित होता है।

सकुले योजयेत्कन्या पुत्रं पुत्रं विद्यासु योजयेत् ।
व्यसने योजयेच्छत्रुं मित्रं धर्मे नियोजयेत् ॥

हिन्दी अनुवाद:
- चाणक्य भौतिक जीवन की जरूरत को ध्यान में रख कर कहते हैं कि पुत्री का विवाह किसी उच्च कुल में कर देना चाहिए, पुत्र को शिक्षा अर्जित करने में लगाना चाहिए, यदि मित्र है तो उसे अच्छे कार्यों में और यदि शत्रु है तो उसे नीच कार्यों अथवा बुराइयों में लगा देना चाहिए। यही सही है और समय भी यही कहता है।
सरल शब्दों में: वर्तमान समय में यह अत्यंत जरूरी है कि समय रहते कन्या के उज्जवल भविष्य एवं सुख शांति के लिए माता पिता को योग्य एवं अच्छा घर ढूंढ कर उसका विवाह समय से कर देना चाहिए और साथ ही पुत्र को अच्छा जीवन देने के लिए एवं समाज में कीर्ति प्राप्त करने के लिए माता पिता को चाहिए की पुत्र को शिक्षित करें, उसे पढ़ने लिखने में लगाएं, मित्र के मंगल के लिए मित्र को हमेसा अच्छे एवं उत्तम कार्यों को करने के लिए प्रेरित करें और शत्रुओं के विनाश के लिए उन्हें बुराई की तरफ धकेल दें ताकि उनका पतन हो सके और वो आपको हानि न पहुँचा सके। नियति यही कहती है और समय की मांग भी यही है।

दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं सर्पो न दुर्जनः ।
सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे-पदे ॥

हिन्दी अनुवाद:
- आचार्य किसी भी जीव की प्रवृत्ति को संबोधित करते हुए कहते हैं कि किसी दुष्ट और सर्प में निःसंदेह सर्प ही उत्तम है, उसकी प्रवृत्ति ही डसने की है और वह केवल एक बार डसता है किंतु दुष्ट जीवात्मा हर कदम पर डसती है अर्थात छलती है।
सरल शब्दों में: हम जिनके स्वभाव से अर्थात जिनकी प्रवृत्ति से परिचित होते हैं निःसंदेह हमें उनसे कम खतरा होता है, क्योंकि हम उनसे बचाव के साधन और उपाय खोज सकते हैं किंतु कपटी और दुष्ट प्रवृत्ति के मनुष्यों से हमें सदैव बच कर रहना चाहिए। वह बार बार हमें छलने और धोखा देने की फिराक में लगे रहते हैं।

मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः ।
भिनत्ति वाक्यशूलेन अदृश्ययं कण्टकं यथा ॥

हिन्दी अनुवाद:
- मूर्खों के संदर्भ में आचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति मूर्ख होता है, ऐसे व्यक्ति को २ पैरों वाला पशु मान कर किनारा कर लेना चाहिए। क्योंकि मूर्ख व्यक्ति आपको अपने अपशब्दों से किसी नुकीले भाले के समान निरंतर ही भेदता रहेगा ज्यों कोई काँटा आपको चुभ जाता है और बार बार पीड़ा पहुँचाता है।
सरल शब्दों में: देखिये आपको ऐसे मनुष्यों से सदैव ही दूर रहना चाहिए जिन्हें केवल मूर्खतावश बोलने की आदत होती है। जिनका अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं होता। ऐसे मूर्ख अक्सर ही अपने शब्दों और मूर्खता से आपको पीड़ा पहुँचाते रहते हैं। अतः ऐसे मनुष्यों की संगत से दूर रही चाहिए।

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥

हिन्दी अनुवाद:
- नीतिशास्त्र के अनुसार आचार्य कहते हैं कि यदि संपूर्ण कुल के लिए किसी एक व्यक्ति का त्याग करना पड़े तो कर देना चाहिए, किंतु यदि ग्राम की आवश्यकता है तो कुल को निःसंदेह त्याग देना उचित होता है। और बात यदि राज्य की हो तो ग्राम को त्याग देना ही बुद्धिमानी है परंतु अंततः बात यदि स्वयं की रक्षा की हो तो संपूर्ण संसार को त्याग कर भी आत्मरक्षा करनी चाहिए।
सरल शब्दों में: कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि यदि किसी विषय-वस्तु के परित्याग से कुल, ग्राम अथवा राज्य की सुरक्षा होती है तो बिना समय व्यर्थ किये उस विषय-वस्तु का त्याग कर दीजिये किंतु जब भी आप पर कोई मुसीबत आये तो सर्वप्रथम स्वयं की सुरक्षा कीजिये। स्वयं को महत्वता एवं स्वयं की सुरक्षा करना ही सर्वोपरि है।

को हि भारः समर्थानां किं दूर व्यवसायिनाम् ।
को विदेश सुविद्यानां को परः प्रियवादिनम् ॥

हिन्दी अनुवाद:
- कौटिल्य महाराज कहते हैं कि जिनका सामर्थ्य अधिक होता है उनके लिए किसी भी प्रकार का भार अधिक नहीं होता, और जो व्यापार में लिप्त होते हैं उनके लिए कोई भी स्थान दूर नहीं होता। जिनको शिक्षा की भूख होती है वह किसी भी देश में रहकर शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और जो जिनकी वाणी में आदर और स्नेह होता है ऐसे मनुष्यों के लिए कोई भी मनुष्य पराया नहीं होता।
सरल शब्दों में: आपके गुण ही आपके जीवन का आधार हैं। अर्थात यदि आपमें सामर्थ्य है तो यकीनन आप कुछ भी कर सकते हैं। आपको यदि व्यापार बढ़ाना है तो दूरस्थ इलाकों और राज्यों तक जाना ही आपकी जरूरत है। यदि आप विद्या प्राप्त करना चाहते हैं, रीति रिवाजों, धर्म, संस्कृति और धरोहरों के विषय में ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो आप किसी भी देश के परिवेश में स्वयं को ढाल सकते हैं और यदि आपकी वाणी मधुर है, आप अन्य मनुष्यों का आदर करते हैं, प्रेमपूर्वक आग्रह या विनती करते हैं तो आपसे कोई बैर नहीं रखेगा और परायापन नहीं रखेगा।

एकेनापि सुवर्ण पुष्पितेन सुगन्धिता ।
वसितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥

हिन्दी अनुवाद:
- आचार्य गुणों की महत्वता समझाते हुए कहते है कि जिस प्रकार सुंदर और ताजा खिले पुष्पों वाला वृक्ष अपने पुष्पों की महक से सारा वन महकाता है ठीक वैसे ही, एक सुपुत्र अपने कर्मों एवं आचरण से संपूर्ण कुल का नाम रोशन कर देता है।
सरल शब्दों में: कहने का तात्पर्य या है कि यदि आप योग्य हैं, गुणी हैं, व्यवहारकुशल हैं, सत्कर्म करने वाले हैं तो निःसंदेह ही आपकी प्रसिद्धि आपके साथ साथ आपके परिवार को भी समाज में मान सम्मान एवं उपलब्धि दिलाती है।

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