त्याग/बलिदान - स्वार्थ की उत्कृष्टता | SACRIFICE - Excellence of Selfishness

जाने कितने ही ऐसे अनगिनत पलों को आप सभी जी चुके होंगे जब आपने अपनी, अपनों की, समाज की अथवा किसी अन्य की खुशी के लिए अपने कितने ही अधिक फैसलों को बदला होगा, कितनी ही इच्छाओं को मारा होगा और जाने कितनी ही जरूरतों से मुँह फेरा होगा। आप चाहे कोई भी हों, अच्छे हों, बुरे हों, स्त्री हों, पुरुष हों, बच्चे हों या बुजुर्ग हों, ऐसी परिस्थितियाँ संभवतः किसी के भी साथ घटित हो सकती हैं। देखिये यूँ तो हमारे धर्म ग्रंथों और ईश्वर ने हमें सदा यही ज्ञान दिया है कि सभी कुछ अस्थिर होता है, सदैव के लिए कुछ भी नही होता, सभी कुछ परिवर्तनशील है अतः हमें इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए और इच्छाओं पर नियंत्रण कर सुखद जीवन का आनंद लेना चाहिए। निःसंदेह यह सत्य है किंतु उन्हीं ईश्वर ने हमें मनुष्य जीवन जीने के लिए संसार की संरचना की है, अतः हमें मनुष्य की भाँति ही जीवन जीना चाहिए, जिसमें प्रेम, घृणा, मिलन, वियोग, इच्छाएँ, अवसाद, परिवार, विरह, अच्छा, बुरा आदि सभी कुछ निहित है। सत्य है कि इस सांसारिक जीवन की सुखद अनुभूति के लिए हमें किसी से भी, किसी भी तरह की लालसा और इच्छाएँ नहीं रखनी चाहियें किंतु सत्य यह भी है कि आपको ईश्वर द्वारा बनाये गए नियमों और उनके द्वारा दी गयी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिए। उन्होंने जिस उद्देश्य से आपको जीवन दिया है और जिन बंधनों में आपको बाँधा है, आप अच्छे और सत कर्म करते हुए उसका निर्वाह करें।

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विचार करें और समझें (Think & Understand):
जरूरी है कि आप घृणा, यातना, षड्यंत्र, हिंसा, धोखा, अहंकार, कटुता, कपट, लोभ, अवसाद आदि सभी दुर्गुणों को खुद से दूर करें और दया, दान, श्रम, प्रेम, सत्य, अहिंसा, मृदुलता आदि अच्छे गुणों को जीवन का आधार बना कर ईश्वर के द्वारा दिये गए जीवन और जिम्मेदारियों का परिपालन करें।

जब आप अपनी इच्छाओं और जरूरतों को किसी अन्य की खुशी अथवा भलाई के लिए छोड़ देते हैं अथवा अपनी किसी निजी वस्तु से अपना स्वामित्व हटा लेते हैं तो आपका यही कर्म-भाव त्याग अथवा बलिदान को परिभाषित करता है। सरल शब्दों में त्याग वह है जिसमें निःस्वार्थ सेवा भाव निहित होता है।

किंतु विचारने और समझने योग्य केवल इतना है कि क्या केवल निःस्वार्थ भाव से किया गया त्याग ही वास्तव में त्याग है अथवा सोच विचार कर, दूसरों की सेवा, भलाई और खुशियों के लिए किया गया त्याग भी एक तरह से निःस्वार्थ त्याग ही है।

जटिल हो गया न, आईये फिर कहानी सुनते हैं ताकि हम आसानी से समझ पाएं कि - त्याग या बलिदान वास्तव में है क्या (What exactly is sacrifice)?



सोमनाथ की परवरिश यूँ तो माता-पिता ने बड़े ही अच्छे ढंग से की थी, जिसका असर उसके आचरण और परिश्रम में भली भाँति छलकता था। आर्थिक तंगी और कम आमदनी के चलते जितना हो सका उतने अच्छे कॉलेज से पढ़ा रहे थे। माता-पिता हमेशा ख्याल रखते की सोमनाथ को अच्छी शिक्षा के साथ साथ उसका रहन-सहन भी अच्छा हो ताकि उसके दोस्तों और समाज के बीच उसकी अच्छी छवि बन सके। फिर इसके लिए चाहे फिर माता-पिता टांका लगी चप्पल और उधड़ी जेब के साथ ही क्यों न जी रहे हों। सोमनाथ भी यह सब समझता था किंतु परिस्थितियाँ क्या कुछ नहीं करा देती। कभी दोस्तों के साथ बाजार घूमने जाना, कभी खरीदारी करना, कभी दावतों का बिल तो कभी सिनेमा घरों का खर्च क्या कुछ नहीं होता आम इंसान के जीवन में। पिता जितना हो सकता, जैसे तैसे कर के बंदोबस्त करते, तो कितनी ही बार हालात से पस्त होकर सोमनाथ को टोकना भी पड़ता, यदि ज्यादा ही आवश्यक और वाजिब होता तो हाथ उधार मांग कर सोमनाथ को पकड़ा देते और अपनी आर्थिक दशा का हवाला देते हुए समझाते कि उनकी सोमनाथ से कितनी उम्मीदें हैं इसलिए वह समय व्यर्थ न करे और अच्छी शिक्षा ग्रहण करे। सोमनाथ उकता सा गया था माता-पिता की इन बातों से।

वह जब भी अपनी माता या पिता से रुपये मांगता माँ-बाप यही राग अलापते। ऐसा जीवन उसे मानसिक तौर पर थकाने लगा था, सब कुछ समझते हुए भी अब उसे केवल यही ध्यान रहता कि उसके माता-पिता ने केवल उसे अपने स्वार्थ के लिए जन्म दिया है, वह सोमनाथ को उसके नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए पढ़ा रहे हैं। वह खिजा खिजा सा रहने लगा। माता-पिता ने किंतु फिर भी जितना हो सकता था उतना परिश्रम किया और सोमनाथ के उज्जवल भविष्य के साथ किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया। वह कोशिश करते कैसे भी करके सोमनाथ की उचित अनुचित मांगों को अब पूर्ण करने की। आखिर वक्त अपनी गति से चला, मेहनत रंग लाई, न केवल सोमनाथ की अपितु माता पिता के बलिदान की भी। सरकारी महकमे में बाबू की नौकरी और मोटी तनख्वाह पाकर सोमनाथ फुला न समा रहा था।

माता-पिता भी खुश थे किंतु सोमनाथ में अब अहंकार जन्म ले रहा था। जब भी माता-पिता सोमनाथ से किसी जरूरत के लिए धन की अपेक्षा करते, सोमनाथ अपने परिश्रम और विवेक का हवाला देकर उन्हें लज्जित सा कर देता। उसे अपनी मेहनत व श्रम तो याद रहा मगर माता-पिता ने जो भी मेहनत और त्याग किये वह उसे याद न था। कुछ ही सालों में सोमनाथ की शादी उसी के दफ्तर में काम करने वाली एक अच्छी लड़की से हो गयी। सोमनाथ की बीवी सरल स्वभाव की थी अतः उसके माता पिता का बहुत अच्छे से ध्यान रखती और उन्हें जो भी जरूरत हो पूरी करती। अब धीरे-धीरे काम, गृहस्थी और बाकी क्रियाकलापों में व्यस्तता बढ़ने लगी तो यारों दोस्तों के साथ घूमना फिरना कम होने लगा, बाजार और खरीदारी कभी-कभार होने लगी, सिनेमाघर जाने का वक्त अब नहीं मिलता और न ही दावतों के क्रम में उतनी अधिकता थी। अब धन-धान्य से तो संपन्नता थी किंतु वक्त नहीं था। सोमनाथ ने इस तरह के जीवन की अपेक्षा नहीं की थी। काम के चलते वह अपने दोस्त और जीवन दोनो को ही वक्त नहीं दे पा रहा था कि बची-कुची कसर तब पूरी हो गयी जब सोमनाथ एक बच्चे का पिता बना। अब वक्त आ गया था सीखने का।

वक्त बेलगाम घोड़े की तरह सरपट दौड़ रहा था, कुछ नहीं बदल रहा था केवल व्यस्तता बढ़ती जा रही थी। सोमनाथ बेचैन हो उठा, इस तरह का जीवन उसे अवसाद लग रहा था, वह चुप-चुप सा रहने लगा। अब वह बच्चे पर भी चिल्ला पड़ता और बीवी कुछ बोले तो झगड़ने लगता। बेटे के इस तरह के रवैये से माता-पिता भी सकते में आ गए। फिर एक दिन माता-पिता ने सोमनाथ से उसके इस व्यवहार का कारण पूछा तो सोमनाथ फट पड़ा और फूट-फूट कर पिता से गले लग कर रोने लगा। सोमनाथ अपनी माता और पिता से माफी मांगने लगा। उसे अपने किये पर पछतावा हो रहा था। अब वह समझ गया था कि कभी उसके पिता भी बालक रहे होंगे, परिस्थितियों को बदलने के लिए बोझ उन पर भी डाला गया होगा, उनके माता-पिता ने उनसे भी उम्मीदें लगायी होंगी, उनके भी यार-दोस्त रहे होंगे जिनके साथ वो जीवन भर मौज-मस्ती करना चाहते होंगे, सिनेमा देखना उन्हें भी अच्छा लगता होगा, नये कपड़े लेने का, नई जगह घूमने का, तरह-तरह के भोजन करने का उनका भी मन करता होगा किंतु केवल उसे (सोमनाथ को) अच्छा भविष्य देने और परिवार की माली हालत सुधारने के लिए उन्होंने जीवन भर परिश्रम किया और बदले में केवल सहयोग की अपेक्षा की। माता-पिता ने अपनी जमा पूंजी, अपने स्वप्न, अपनी इच्छायें सभी कुछ केवल अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए त्याग दिया था। सोमनाथ को संभालते हुए माता-पिता ने फिर समझाया की बच्चों को उज्जवल भविष्य देना हर माता-पिता का सपना होता है, उसके लिए परिश्रम करना उनकी जिम्मेदारी होती है और उन्हें एक अच्छा मनुष्य बनाना उनका कर्तव्य होता है किंतु इन सबके बदले वह अपने बच्चों से केवल सहयोग और प्रेम चाहते हैं। वह यह सब किसी उम्मीद से करते हैं न की स्वार्थ से।

देखिये माता-पिता चाहे धनी हों अथवा निर्धन, वह हमेसा त्याग करते हैं, केवल आपके लिए, आपके उज्ज्वल भविष्य और आपके सपनों को साकार करने के लिए। माना की अगर उन्होंने आपको जन्म दिया है तो आपका पालन-पोषण उनकी जिम्मेदारी है, आपका खर्च वहन करना और आपकी इच्छाओं की पूर्ति करना उनका कर्तव्य किंतु आपका भी उत्तरदायित्व है कि आप उन उम्मीदों पर खरे उतरने का हर संभव प्रयास करें जो उम्मीदें आपसे लगायी गयी हैं, आप अपने माता-पिता की असमर्थता को सामर्थ्य में बदलें और उनसे हमेसा प्रेम करें। और उनकी आपसे लगायी गयी उम्मीदों को स्वार्थ का नाम देकर उनके त्याग को, बलिदान को आहत न करें। उनसे ज्यादा त्याग या बलिदान आपके लिए कभी कोई नहीं कर सकता।

अन्य लेखों में आप सफलता के लिए जरूरी तथ्यों के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

Note::: All images taken from Pixabay.com & freepik.com

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